काशी की तवायफों का आजादी में महत्वपूर्ण योगदान

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प्रतीकात्मक तस्वीर

तवायफों का इतिहास आज भले ही पन्नों में दफन हो चुका है, लेकिन काशी से इनका पुराना रिश्ता रहा है। 19वीं शताब्दी के शुरुआत में यहां के कई चौराहे और गलियों में महफिल सजायी जाती थी। इस दौरान वहां आजादी की रणनीति तैयार की जाती थी। यही नहीं, उनके द्वारा सजाई गई संगीत की महफिल से रईसों से पैसा जुटाकर क्रांतिकारियों को मुहैया कराया जाता था। 
 
काशी के राज दरबारों, रईसों की कोठियों के अलावा मंदिरों और मठों में भी इनकी संगीत की महफिल जमा करती थी। इसमें आजादी के तराने गुंजा करते थे। इस दौरान वहां अंग्रेजों से लोहा लेने की रणनीति बनाने के लिए क्रांतिकारी इकट्ठा होते थे। इनकी महफिल अक्सर शाम छह बजे के बाद ही सजती थी। इसमें मिलने वाले पैसों को वह चुपके से क्रांतिकारियों को दिया करती थीं। कई बार अंग्रेज अफसरों ने उनके यहां छापा भी मारा था। 
 
जानिए ऐसी ही कुछ तवायफों के बारे में बताया, जिन्होंने देश की आजादी में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। 19वीं शताब्दी की शुरुआत से लेकर 1940 के बीच चौक और डालमंडी में इनकी महफिल सजा करती थी। उस वक्त काशी के रईस भांग, बूटी और पान दबा कर इनकी महफिल में शामिल हुआ करते थे। यहां के पूर्वजों का संगीत में रुचि रखने का पुराना इतिहास रहा है। 

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जद्दन बाई की फाइल फोटो

जद्दन बाई
 
‘लागत करेजवा में चोट’ वृंदावनी श्रृंगार की ये ऐसी बंदिशें हैं जो जद्दन बाई की याद ताजा कराती हैं। कहा जाता है कि वह अपने समकालीन गायिकाओं में सबसे ज्यादा सुंदर थीं। अपने जमाने की मशहूर एक्ट्रेस नर्गिस इन्हीं की बेटी थीं। बनारस में चौक थाने के पास इनकी महफिल सजती थी। 
 
जद्दन बाई ने संगीत की शिक्षा दरगाही मिश्र और उनके सारंगी वादक बेटे गोवर्धन मिश्र से ली थी। उस जमाने में जद्दन बाई के कई गीत ग्रामोफोन में भी रिकॉर्ड किए गए थे। बताया जाता है कि जद्दन बाई अपने देश की आजादी के लिए अंग्रेजों से भागे क्रांतिकारियों को कई बार अपने महफिलों में शरण देकर जान बचा चुकी हैं। मुख्य रूप से वह ख्याल और ठुमरी गाया करती थीं।
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गौहर जान की फाइल फोटो

गौहर जान
 
काशी समाज के संयोजक और ग्वालियर घराने के गायक केके रस्तोगी ने अपने जमाने की सुर बाला गौहर जान के बारे में बताया कि उनकी महफिल कोलकाता (तत्कालीन कलकत्ता) में सजती थी। काशी के रईस उनके संगीत का आनंद उठाने वहां भी जाया करते थे। 
 
1917 के आस-पास गौहर जान काशी के रईसों के साथ आ गईं। वह ठुमरी, चैती, कजरी और ख्याल गाती थीं। गणेश मंडपम में इनकी महफिलों में आजादी के तराने गूंजा करते थे। अंग्रेजी हुकूमत ने कई बार इसका विरोध भी किया था।

सिद्धेश्वरी देवी
 
सिद्धेश्वरी देवी चंदा बाई की लड़की थीं। उन्होंने साल 1900 के आस-पास सीया जी महाराज से संगीत की तालीम ली। मणिकर्णिका घाट के पास उनका अपना घर हुआ करता था। सिद्धेश्वरी देवी का कोठा भी उनके घर में ही हुआ करता था, जहां संगीत के कद्रदानों की महफिल शाम होते ही सजने लगती थी। 
 
सिद्धेश्वरी देवी खेमटा, कहरवा, सादरा, टप्पा और खयाल की बंदिशें गाया करती थीं। बाद में उन्होंने आजादी के समय में कई देश भक्ति के गीत भी गाए। लोग उन्हें ‘स्वर जीवनी’ के नाम से भी जानते थे।
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रसूलन बाई की फाइल फोटो

रसूलन बाई
 
‘फुलगेंदवा न मारो मैका लगत जोबनवा (करेजवा) में चोट …।’ उस्ताद शंभू खां रसूलन बाई के उस्ताद थे। इनका कोठा दालमंडी में था। उनकी महफिल में रईस कद्रदानों की भारी भीड़ उमड़ा करती थी। केके रस्तोगी बताते हैं कि साल 1920-22 के आस-पास रसूलन बाई की संगीत की महफिल में आजादी की लड़ाई की रणनीति भी तैयार की जाती थी। 

छोड़ दिया था आभूषण पहनना 
 
रसूलन बाई ने आभूषण तक पहनना छोड़ दिया था। वह अपने कोठे पर लोगों को आजादी के तराने सुनाया करती थीं। उन्हें संगीत और तहजीब की मिसाल कहा जाता था। वह प्रमुख रूप से ठुमरी, टप्पा और चैती प्रमुख गाती थीं। ब्रिटिश हुकूमत ने रसूलन बाई को काफी प्रताड़ित भी किया।

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विद्याधरी की फाइल फोटो

विद्याधरी
 
19वीं शताब्दी में विद्याधरी गीत-गोविंद गाने वाली अकेली गायिका थीं। वह मूल रूप से चकिया की रहने वाली थीं। उन्हें सुनने के लिए देश के कोने-कोने से लोग आते थे। इनके कोठे पर अक्सर खड़ी महफिल लगा करती थी। वह बनारस के रईसों के घरों में भी जाकर संगीत की महफिल सजाया करती थीं। 
 
शाम 6 बजे के बार सजती थी महफिल
 
बताया जाता है कि इनकी ठुमरी, चैती, टप्पा और खयाल की बंदिशें ऐसी थीं कि लोग घंटों मंत्र मुग्ध रहते थे। इनका कोठा अक्सर शाम 6 बजे के बाद ही सजता था। महफिलों से मिलने वाले पैसों को वो चुपके से क्रांतिकारियों को दिया करती थीं। कई बार अंग्रेज अफसरों ने उनके यहां छापा भी मारा था। 

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